Tuesday, July 7, 2009

मुसाफिर

तालाब के ठहरे पानी में अपने अक्स को देखकर पता चला ख़ुद में आयी तब्दीलियों का।
हवा के झोंके से मालूम पड़ा कि बीते अर्से में वक्त की रफ्तार काफी बड़ी रही।
हाँ, मंज़र काफी बदला सा नज़र आता है।
वही मैं, जो कभी दिन के उजाले में नज़र नही आता था,
आज सिखर दोपहर लोगों से हँसते, बातें करते दिखायी दिया।
वाकये काफी कुछ बदला है।
महताब के दीवाने की आफ़ताब से दिल्लगी ।
बड़ी अजीब सी कैफ़ियत है - न खुशी है न गम।
एहसास है इस बात का की रास्ते दूर तक जाते हैं।
बारिश की बूंदों के तालाब के पानी में गिरने से बनते सुरों ने मुझे बताया,
कि मुझ तक पोहंचने तक हर समय, हर घड़ी वो अपनी मंजिल पाये हुए थे।
ये सफर ही उनकी मंजिल थी।
पर मैं तो फिर भी भटक रहा हूँ, एक मंजिल कि तलाश में।
पता सिर्फ़ ख़ुद के मुसाफिर होने का है।
मुसाफिर, जिसे बोहत दूर जाना है।
बरसती बारिश में मैं पीपल के पेड़ के नीचे खड़े हो ख़ुद को कहीं दूर जाते देख रहा हूँ।
वो मैं - जो मुझसे दूर गया, मेरी ओर पलट के मुस्कुराया और आँखों से ओझल हो गया।
बोहत दूर जाना है उसे। बोहत दूर।

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