Thursday, September 10, 2009

टूटते पैर

जूतों की तो बात ही छोड़ो, अब तो पैर भी टूटने लगे हैं।
दिन गुज़रता है कैसे तो बोहत दूर की बात है,
अगला कदम कैसे चलूँगा यही खौफ पीछा नही छोड़ता।
खचाखच भरे सुनसान से रस्ते, गुमराह सा घूमता मैं।
सर पे चौन्द्याता सा सूरज, सूखे हल्क गुज़ारिश करता सा मैं।
लोगों के बोलते मुँह पर मुझ तक न पहुँचती आवाजें।
हिम्मत बाकि है अभी भी पर जिस्म धोखा दे रहा है।
ढगर पे चलते आज इस मुकाम आन खड़ा हूँ,
की हर बात बेमानी सी लगती है।
मेरे मालिक ने मेरे लिये शायद यही हश्र तय किया है।
रद्दी वाले के ठेले पे पड़ी पुरानी अख़बारों के पुलिंदे सा लगने लगा हूँ ख़ुद को।
जूतों की तो बात ही छोड़ो, अब तो पैर भी टूटने लगे हैं।