Tuesday, March 10, 2009

मेरे ख़याल में...

यह कैसा मंज़र है मेरे ख़याल में बार - बार आता
बड़ा पहचाना सा ख़याल है, पर ऐसा हुआ नही
में एक मुसाफिर हूँ, किसी सफर में, मंजिल नही पता
बोहत सुबह का समय है, सूरज अभी उगा नही
मैं इस बैलगाड़ी में लेटा हूँ, ठण्ड का मौसाम है
कम्बल ओढे हुए हूँ, हलकी सी सर्दी लग रही है
यह शक़्स जो बैलगाडी चला रहा है, मेरी और मुड़के,
मुस्कराते हुए देखता है...मैं इससे नही जानता, पर यह मुझे जानता है
हम किन्ही खेतों में बनी पग्ढन्ढिओन में से गुज़र रहे हैं
चारों तरफ़ पंछी उढ़ रहे हैं, मेरे कानों में उनके चहकने की आवाज़ है...
शायद बोहत अर्से बाद मैं कुछ सोच नही रहा...बस देख रहा हूँ
हर शह मेरे साथ देख रही है
दूर दरगाह से किसी फ़कीर की मंद गाती हुई आवाज़,
फिज़ा में सुकून घोल रही है
बैलों के गले मैं बंधी घंटियों की खनक मन्ज़र को और सुहाना कर रही हैं...
कोई भाग नही रहा , कहीं कोई तड़प नही
हर शक्स...हर शह सुकून मैं है...मैं भी !
कोई किसी का इंतज़ार नही कर रहा...
कोई किसी वादे के पीछे नही भाग रहा
हमने सारा दिन इस बरामदे मैं बैठकर,
लोगो के साथ चाय पीते, बातें करते गुज़ार दिया
सारा दिन बारिश पड़ती रही...बस अभी अभी बंद हुई है
फिज़ा मैं गीले पेडों और मिटटी की महक ने एक अजीब सा नशा फैला रखा है
वो सामने लगे बरगद के पेड़ से टपकी बूँदें जब नीचे खड़े पानी मैं गिरती हैं,
एक अलग सी धुन बना जाती हैं
शाम का समय है, रात होने को है
मुझे अभी - अभी गाड़ीवाले ने आवाज़ लागाई उसने गाड़ी को छत्त के,
अन्दर लालटेन जला दिया है...
मुझे चलने का इशारा कर रहा है
और मैं फिर सफर में हूँ...कहीं जा रहा हूँ...मंजिल नही पता
यह कैसा मन्ज़र है मेरे ख़याल में बार - बार आता