Wednesday, April 26, 2017

कैफ़ियत

घुप्प सियाही रातों में, मेरे खौलते जज़्बातों में
कुछ ऐसे हसरत भटकी थी, कुछ किस्मत मेरी चटकी थी
कुछ अपनों ने ही नोच लिया, कुछ मेरे ज़हन ने सोच लिया
कुछ बातें तो जी की भी थीं,माना मह भी थोड़ी पी ही थी
अब जाकर है एहसास हुआ, जब लहू जिगर के पास हुआ

बस किस्सों या अफ़सानों में या माँ के दिल की खानों में,
दो कौड़ी मोल भी लगता नहीं है दर्द का इस ज़माने में।

चाहे जिसको लाना ले आओ, मैं यही खड़ा सुनते जाओ
अब देख मैं क्या रँग लाता हूँ, क्या खोता क्या मैं पाता हूँ
चाहे आँखों लहू भी लाऊँगा, एक कतरा ना बहाऊँगा
मेरे दिल ने लानत डाली है, क्या इससे बड़ी कोई गाली है?
इस बार तो मैंने ठाना है, मेरी ठोकर पे ज़माना है

बस क़िस्सों या अफ़सानों में या माँ के दिल की खानों में,
दो कौड़ी मोल भी लगता नहीं है दर्द का इस ज़माने में।

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