Monday, June 14, 2010

छुते हैं बुलंदियां पँख लेकर परवाज़।
गुलों से होती है रंगत महक करती है शादाब।
पंछियों के डेरे से है रोनक- ऐ - बस्ती।
इप्तदा है अछी वाजिब होगा अंजाम।

2 comments:

  1. पता नही क्यों पूरी रचना नही पढ पा रहा....आप अपनी पोस्ट को ठीक करियेगा.........छुते है बुलंदियां पँख लेकर परवाज...क्या खूब कहा है....अति सुन्दर

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  2. ummed sahab ummeed hai ab aap pad payenge. Apna khayal rakiyega.

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