ऐ दोस्त मैंने तुमसे बोहत सीखा है
याद है मुझे जब मैं आया था इस महफ़िल में
लोगों के तंज़ और फब्तियां पशे मंज़र था
इस जहाँ का दस्तूर है कोई कोशिश को सराहता नहीं
हम भी लहू लूहान थे आगे बढ़ने की चाह में
नियात मगर नेक थी जग हँसाने कि चाह थी
एक दूसरे का हाथ थामे ली एक परवाज़ थी
जो आज है ले आई हमे इस नये दयार पर
आज दुनिया सजदा कर रही, है फ़तेह पैर चूमती
मज़ाक उड़ने वाले खुद बन गए मज़ाक हैं
यह हुआ है करम क्योंजो साथ तुम्हारा पाक है
ऐ दोस्त मैंने तुमसे बोहत सीखा है
सीखा है मैंने मुसीबतों से लोहा लेना
आगे बढ़के मुश्किलों को कलम कर देना
अकेली सी डगर चल सबको अपना बनाना
रुकावटें हो बेशुमार पर हौंसले बुलंद रखना
में गिर भी जाऊं अगर उठने का सबर सीखा है
मेहनात कि कमी न हो हर से दरी ना हो
दर्द हो भी अगर, आँख में नमी न हो
वैसे तंग होने और करने के इलावा
चेहरे पर हंसी बनाये रखने का हुनर सीखा है
अँधेरे को चीर रोश्नाने का हुनर सीखा है
ऐ दोस्त मैंने तुमसे बोहत सीखा है।
Wednesday, March 24, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment